सोमवार, 18 फ़रवरी 2008
अब दर्द ही नही होता
आज जब इन्टर्नशिप की बात चल रही अचानक मैं जाने किस बोझ से दब गया, लगा जीवन अपराध होता जा रहा है। सब शायद कुछ सोच रहे लेकिन मैं संज्ञा शून्य सा बस जाने क्या सोच रहा था । शायद उजड़ते सपनों की राह या अपने अपमानित गर्व को। अब प्रश्न शायद एक नई राह चुनने का था ,मैं आपनेको आज फ़िर वही पा रहा था जहाँ से यहाँ के लिए चला था । उस दिन की परीछा मे लापरवाही आज सबसे ज्यादा भारी पडती दिखाई दे रही थी। उस दिन तो मैंने पेपर भी ढंग से नही पढा था,आखिर किस खुस फहमी मे जी रहा था । यही तो आज भी दर्द पैदा कर रहा है । अब जिन्दगी किस करवट बैठेगी यह तो मुझे भी पता नही है ,अभी कब तक आश्रित जीवन जीना पडेगा मुझे पता नही। जितना सोचता ह उतना ही अंधकार नज़र आता है ।
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