गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008
रोने का मज़ा ही अलग है
जब जब मन उदास हो मन भर के रोना चाहिए ]किसी का कन्धा मिले तो ठीकहै लेकिन न मिले तो अकेले ही रोना रोना चाहिए । जब आंसू बाहर निकल जाते है तो मन शांत हो जाता है । रोते रोते सब बात कह डालने का मज़ा शयेद ही अन्य किसी तरीके मे हो। ख़त लिखने मे भी इतना मज़ा नही आता है।
शनिवार, 23 फ़रवरी 2008
सच से सामना हो गया
आज मैं एक स्कूल गया जहाँ शायद मुझ जैसो से ज्यादा समझदार बच्चे पढ़ रहे है। कहने का मतलब यह है कि उन्हें तो प्रकृति ने चुनौती दे रखी है ,इन सबके बावजूद वे हमसे कहीं भी पीछे न थे । हमारी तरह सब कुछ जानते थे और अपनी जीवन जीने के तरीके मे हमसे कई गुना होशियार भी। ब्लाइंड होने के बावजूद वे हमसे उसी तरह मुखातिब थे जैसे सामन्य बच्चे । इस स्कूल के टीचर कि मेहनत भी कम न थी ,उन्हें देखकर लगने लगा कि आज कल शायद माँ -बाप भी आपने बच्चे को इतना प्यार नही करते है। खास कर पिज्जा फेमिली वाले तो कतई नही । आज वह भ्रम टूट गया कि ऐसे बच्चे बेह्टर काम नही कर सकते है ,jrurat तो उन्हें थोड़ा alg dhyan देने कि है । ऐसे sansthan की upyogita और ubhr आती है।
शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008
लोग सच बोलने से क्यों डरते है
आज बहुत दिन बाद ये लगने लगा है की अब सच बोलना भी गुनाह हो सकता है। लोग बात को बे बात कर देते जब उन्हें लगता है कि ये आदमी सच बोलने लगा है।पुरानी बातों और सिधान्तो कि जगह नये नियम गढ़ने लगता है । यानि एक आदमी मानता है कि जितना हम बतायेंगे यह उससे आगे नही सोचेगा । जब कि सोचने कि प्रक्रिया किसी कि गुलाम नही है । अब गोली मार भेजे मे बात दिमाग मे नही आये इसके लिए जरूरी है कि आपने तर्कों को और मांजा जाए । इतना पुख्ता बनाया जाए कि नियम देने वाले भी उसको मने भले ही न लेकन सोचने के लिए मजबूर जरुर हो जाए।
सोमवार, 18 फ़रवरी 2008
अब दर्द ही नही होता
आज जब इन्टर्नशिप की बात चल रही अचानक मैं जाने किस बोझ से दब गया, लगा जीवन अपराध होता जा रहा है। सब शायद कुछ सोच रहे लेकिन मैं संज्ञा शून्य सा बस जाने क्या सोच रहा था । शायद उजड़ते सपनों की राह या अपने अपमानित गर्व को। अब प्रश्न शायद एक नई राह चुनने का था ,मैं आपनेको आज फ़िर वही पा रहा था जहाँ से यहाँ के लिए चला था । उस दिन की परीछा मे लापरवाही आज सबसे ज्यादा भारी पडती दिखाई दे रही थी। उस दिन तो मैंने पेपर भी ढंग से नही पढा था,आखिर किस खुस फहमी मे जी रहा था । यही तो आज भी दर्द पैदा कर रहा है । अब जिन्दगी किस करवट बैठेगी यह तो मुझे भी पता नही है ,अभी कब तक आश्रित जीवन जीना पडेगा मुझे पता नही। जितना सोचता ह उतना ही अंधकार नज़र आता है ।
गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008
आवश्यकताएं -मजबूरियां और जिम्मेदारियां
समाज मे परिवार से लेकर राज्य तक सभी जगहों पर आवश्यकताओं और जिम्मेदारियों का तालमेल है ! बात तब बे बात हो जाती है जब कोई ये कहने लगता है कि इस बात के लिए मेरी तरफ मत देखना ! यानि वह उस समय ये बता रहा होता है कि मैं सब कुछ दे सकता हूँ और छीन भी सकता हूँ ! जिम्मेदारियां भूल कर आवश्यकता को मज़बूरी मे बदल देना चाहता है। जब कोई मजबूर हो तो उसे अपनी शर्तो पर नचा सके। आज के इस दौर मे माँ-बाप से लेकर सभी शासन की बदनीयती के शिकार है। आखिर ये बात आती ही क्यों है कि अगर मैं ये न करू तो क्या करोगे। इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि हम सोचे कि आखिर आश्रित होने का दंश कैसे कम किया जाए। क्यो करे चापलूसी किसी की कि वह मेरा भला कर देगा। क्यों न दे दें चुनौती उस आश्रय देने वाले को और कह दे कि हम मे है वो बात ...........कि
अब क्या देखें राह तुम्हारी
बीत चली है रात
छोडो
छोडो गम की बात
थम गए आंसू
थक गयी अंखिया
गुजर गयी बरसात
बीत चली है रात
छोडो
छोडो गम की बात
कब से आस लगी दर्शन की
कोई न जाने बात
बीत चली है रात
छोडो गम की बात
तुम आओ तो मन मे उतरे
फूलों की बारात
बीत चली रात
अब क्या देखे राह तुम्हारी
बीत चली है रात ।
अब क्या देखें राह तुम्हारी
बीत चली है रात
छोडो
छोडो गम की बात
थम गए आंसू
थक गयी अंखिया
गुजर गयी बरसात
बीत चली है रात
छोडो
छोडो गम की बात
कब से आस लगी दर्शन की
कोई न जाने बात
बीत चली है रात
छोडो गम की बात
तुम आओ तो मन मे उतरे
फूलों की बारात
बीत चली रात
अब क्या देखे राह तुम्हारी
बीत चली है रात ।
सोमवार, 4 फ़रवरी 2008
सवेरे की तलाश मे
आज जाने कैसा महसूस हो रहा है। मन किसी अनजाने बोझ से दबा जा रहा है। जैसे किसी अपराध से जुडे औजार की बरामदगी हो गई हो। सब कुछ जानते हुए भी आज के दिन की तकलीफ से खुद को नहीं बचा पाया।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)