शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

काफी दिनों बाद तपिस से उपजे पसीने में ठंड का एहसास आया है..

सारी समस्याओं के बीच कुछ समस्याओं से पीछा छूटा है...समस्या हमारे सहपाठियों में कुछ का सेलेक्शन न होने से जुड़ी थी। अरूण और पूर्णिमा का बेसिल से जरिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय की मॉनीटरिंग टीम में हो जाना तेज धूप में एक बादल की छांव जैसा है। कारण कि इनका संघर्ष अन्य सहपाठियों की तुलना में ज्यादा लम्बे समय तक चला। जबकि संघर्ष के लिए मुनासिब होने की शर्त पर भी संघर्ष चल रहा था। खैर स्थितियों के बदलने और बेहतर होने की आश भी जागी है.....संघर्ष पर विश्वास भी बढ़ा है....मैं ज्यादा सुकूंन महसूस कर रहा हूं। क्योंकि इनके इस पूरे संघर्ष को मैंने बढ़ी नजदीकी से देखा है। मुझे याद है कि किस तरह बार बार इन लोगों के घर लौटने की बातें जोर पकड़ने लगती थी। बार-बार झूठी दिलासा देना कि परेशान न हो...जल्दी ही कहीं हो जाएगा.......बस कुछ दिन और इंतजार कर लो...इस कुछ दिन के इंतजार में पूरे ६ महीने लग गए...संघर्ष के दौर में इनके जरिए मैंने आदमियों की आदमियत को भी बड़ी नजदीकी से परखा। यह अनुभव भी अपने आप में काफी अहम है...जब खुद का संघर्ष कम और सामने वाले का संघर्ष ज्यादा सिखा रहा हो,...लेकिन इस सबके बावजूद संघर्ष का अंत नहीं दिखता है...क्योंकि सामंती मानसिकता से जुड़ाव रखने वाले लोगों की संख्या में कोई गिरावट नहीं आई है। ऐसे में इनके साथ कार्यस्थल पर संघर्ष का नया दौर शुरू होगा। लेकिन विश्वास है कि इन लोगों ने इस संघर्ष से इतना सीख लिया है कि उससे बड़ी आसानी से निपट लेंगे।...अरूण और पूर्णिमा को बधाई..............

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