सोमवार, 17 मार्च 2008

कितना अधूरा जीते हैं हम

आज जे एन यू को मैंने एक नई नजर से देखा . आई ई एम् सी से लौटते समय बस खाली मिली .मैं महिला वाली सीट पर बैठ गया .अचानक बाहर देखने पर जो नज़र था वह मुझे पूरी तरह से अजनवी लगा .जे एम् यू के अंदर इतने मकान कहाँ से आ गए.दरअसल ये मकान बसंतकुंज के थे.जिन्हें कभी देखा ही नही था. बात ये नही की न्मैने नही देखा बल्कि बात तो यह है की इस जीवन मे किसी चीज को एक ही तरीके से देखने कितने आदी हो जाते हैं. यही हाल समाज के वंचित तबके के हालत को समझने मे है . हम जहाँ खडे हैं वही से उन्हें देखते हैं जब कि जरूरत उनकी जगह जाकर सोचने की है . अगर मैं उस सीट पर न बैठा होता तो कैसे जान पाता कि वहाँ से दिखाई देने वाली दुनिया कैसी है. यानी ये दुनिया हर जगह से अलग अलग दिखई देती है.एक अमीर अपने मुताबिक तो गरीब अपने मुताबिक देखता है .गलोब्लैजेशन को लेकर मत भेद भी इसी कारण मुनासिब है. अलग खडे होने के नजरिये ....

वादा किससे -खुद से या औरों से

आज मैं अचानक इतना प्रेषण हो गया की रात के १२ बजे नेट पर जा बैठा.मुद्दा था कि मैं किन वादों और इरादों के साथ आई आई ऍम सी आया था . आज मारे एक दोस्त ने मुझे एक बात याद दिलाई कि मैं दिसम्बर तक किस तरह एक अच्छा नौकर होने अच्छा क्लर्क बनने की बातें करता था. लेकिन अब नही करता.लोग इसे बदलाव के रूप मे देखेंगे जबकि मैं इसे अपनी हार और कायरता के रूप मे देखता हूँ क्यों कि संघर्षों से भागना मेरी पुरानी आदत है .यह डर यहीं नहीं समाप्त होता है बल्कि कहीं पत्रकारिता के जोखिम को सहने मे कायर न बना दे ..हर दर्द से बे प्रवाह हो सकता हूँ लेकिन अपने से या गैर से किये वादे मुझे सोने नही देते .आई ए एस बनने का सपना मुझे मेरे माता और पिता ने दिखाया था और मैं अब पत्रकार बनने का सपना खुद से देख रहा हूँ उनके सपनों से विद्रोह करके. शायद ही उन्हें ये जान कर अच्छा लगे कि अब से मैंने तैयारी न करने का फैसला ले लिया है. अब तो मुझे ही संघर्ष करना होगा स्वयं से ताकि अपने को कही खडा कर सकूं किसी जगह पर.